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प्रश्न : क्या प्रारब्ध के कारण हम *सभी कर्म* करते हैं या उसके अलावा भी कर्म करते हैं? यदि करते हैं तो उस अन्य कर्म को क्या कहते हैं ?

आद्यंतीं दैव मध्ये पुरुषु।

ब्रह्मविद्या में आये उपरोक्त सूत्र का अभिप्राय है कि परमेश्वर तंत्र जीव को किसी न किसी माध्यम से — किसी अवतार या किसी अन्य निमित्त के द्वारा — ज्ञान पहुँचाता रहता है। उस ज्ञान का उपयोग मनुष्य रूपी जीव कैसे करता है, यह उसकी स्वतंत्रता है। परंतु वह जो कुछ करता है,

उसका फल अंत में अच्छी और बुरी परिस्थितियों के और योनियों के रूप में परमेश्वर तंत्र ही देता है। इस प्रकार मिलने वाले कर्मफल ही सामान्य भाषा में प्रारब्ध या भाग्य कहलाते हैं। मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य योनियों में तो जीव केवल उन कर्मफलों को दुःख और दुःख के रूप में भोगता है,

परंतु मनुष्य योनि में प्रारब्ध को भोगते हुए मनुष्य जो कुछ भी करता है, उसके एवज़ में नए कर्मफल (प्रारब्ध) तैयार होते रहते हैं, जिनका फल उसे प्रकृति (परमेश्वर तंत्र) के अचूक नियमों के अनुसार समुचित रूप से समुचित काल अवधियों में मिलता रहता है।

जन्म-जन्मांतरों में अपने कर्मों के फल को भोगते हुए और परमेश्वर तंत्र द्वारा प्रदत्त ज्ञान से प्राप्त संस्कारों के कारण जब जीव ज्ञान के उस स्तर पर पहुँच जाता है जहां उसका हर कर्म किसी भी इच्छा से रहित (निष्काम) हो जाता है तो उसके कर्म प्रारब्ध के रूप में नहीं जुड़ते और

वह पाप-पुण्य से शून्य होकर परमेश्वर के मोक्ष पद के लिए सुपात्र बन जाता है।

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